बुधवार, 14 मार्च 2012

कुछ शायरी...

तस्वीरो का रोग भी आखिर कैसा होता है
तन्हाई में बात करे तो बोलने लगती है ...
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चलेगे साथ लेकिन उम्र भर मिल न पायेगे
नदी के दो किनारों की कहानी भी निराली है ...
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गमे-ऐ-ज़िन्दगी से फुर्सत ही न मिली वरना
अगर हम किसी के होते तो सिर्फ तुम्हारे होते ...
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गरीबो की बस्तिया है कहाँ से शोखिया लाऊ,
यहाँ बच्चे तो रहते है मगर बचपन नहीं रहता...
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गर नींद पूरी करे तो पूरी रोटी न कमाई जाये,
और जब पूरी रोटी न मिले तो पेट नींद खा जाये...
गरीब के घर में भी बंटवारा होता है रोज़...
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उसको सजने की, सवरने की, ज़रूरत ही नहीं..
उसपे जचती है, 'हया' भी किसी जेवर की तरह...
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ताबीर ही सोचते रहे हम अधूरे खाव्बो की,
और नींद आँखों की देहलीज पर तड़पती रह गयी...
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आज भी बैठा था वो, मेरे पीठ पीछे ही,
लोगों की भीड़ थी वरना खंज़र चलाता आज भी...
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दिन भर, रात भर, क्या बताऊँ मैं कैसी कशमकशों में रहता हूँ,
वो याद आने की जिद पे रहता है, मैं भूलने की कोशिशो में रहता हूँ...
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